नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा है कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर अपना निर्णय देना अनिवार्य होगा. न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने यह फैसला सुनाया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा की गई कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है.
यह महत्वपूर्ण फैसला तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा कई विधेयकों को मंजूरी देने में कथित देरी के बाद आया है. इस मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल के फैसले को अस्वीकार कर दिया. न्यायालय ने अपना यह फैसला मंगलवार को सुनाया था, जबकि इससे संबंधित विस्तृत आदेश शुक्रवार को सार्वजनिक किया गया.
अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 201 के अनुसार, जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को या तो उस पर सहमति देनी होती है या अस्वीकृति व्यक्त करनी होती है. हालांकि, इस प्रक्रिया के लिए संविधान में कोई निश्चित समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है. इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्रपति के पास पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है, जिसका अर्थ है कि वे अनिश्चित काल तक अपने निर्णय को लंबित नहीं रख सकते.
पीठ ने जोर देकर कहा कि कानून का स्थापित सिद्धांत है कि यदि किसी प्रावधान में समय सीमा निर्दिष्ट नहीं है, तो भी उस शक्ति का प्रयोग उचित समय के भीतर किया जाना चाहिए. न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अलग नहीं माना जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि यदि तीन महीने से अधिक की देरी होती है, तो उसके उचित कारण दर्ज किए जाने चाहिए और संबंधित राज्य को इसकी सूचना दी जानी चाहिए.
पीठ ने स्पष्ट रूप से निर्देश दिया, हम यह निर्धारित करते हैं कि राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को उस संदर्भ की प्राप्ति की तारीख से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है. सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि यदि निर्धारित समय सीमा के भीतर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो संबंधित राज्य अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है. न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि किसी विधेयक को उसकी संवैधानिक वैधता के कारण रोका जाता है, तो कार्यपालिका को अदालत की भूमिका नहीं निभानी चाहिए और ऐसे मामलों को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट के पास भेजा जाना चाहिए. अदालत ने कहा, हम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जब किसी विधेयक में केवल कानूनी मुद्दे शामिल हों, तो कार्यपालिका के हाथ बंधे होते हैं और केवल संवैधानिक अदालतों को ही ऐसे मामलों पर अध्ययन कर सुझाव देने का अधिकार होता है.
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब न्यायालय ने यह भी कहा कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने द्रमुक (डीएमके) सरकार द्वारा पारित 10 विधेयकों को मंजूरी न देकर गैरकानूनी कार्य किया है. अदालत ने राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय करते हुए यह भी कहा कि किसी भी प्रकार की निष्क्रियता भी न्यायिक समीक्षा के अधीन आ सकती है.